Thursday, August 15, 2013

क्यों, कैसे,कब,कहाँ वगैरह…
प्रश्नो का खोल
उघाड़ता
मेरे शरीर में छुपे  d
मानवता के प्रश्न को
अन्धेरे में|
जहाँ कोई और अंदर झाँकने की
चाह कर भी नही सकता
वहाँ जगह काफ़ी है हाँलाकि
पर.........
प्रश्नचिन्ह
काफ़ी निशान हैं गहरे
ख़ुद से अंकित, गोदे गए
किसी शरीर पर विराजमान
भव्य 'टेटू' जैसे
किसी अनुभवीं द्धारा गोदे गये
ठीक वैसे ही अपने अंदर मेरे द्धारा|
सुनो!
ये काफ़ी विषाद लिए हैं
छुपाये हुए हैं अंतरनिहित प्रेम
जो व्याख्यायित नही किया गया
या कभी करने की कोशिश की
असफल रहा|



उसका एकांत
बहुत सघन था
रचते हैं
भूत, वर्तमान और भविष्य के
विचित्र चरित्र
कथाँए
उसके एकांत में
बहुत रंगीन था उसका एकांत
बिचारी...........
किसी ने ख़लल डाला
अब….
बहुत भयभीत है
उसका एकांत.


संबोधन !
संबोधन !
छिपाता हुआ
छुपा हुआ संसार
सारे संबंध मैंने लेकिन
संदिग्धता के दायरे में
खड़े कर दिए हैं
तुम्हे डर है
अपने नाजायज अधिकारों का
ख़ुद से छिन जाने का
इसलिए
जीवित मनुष्य कि तरह संबोधित व्यक्ति का
आंकलन नही किया

बल्कि बाराम्बार
वे ना चाहते हुए
ढोते रहे बासी
सदियों से ढोते आए मृत संबंधो को
और जाहिर है आगे भी
ढोते जाते रहेंगें

जब तक संबोधन रहेंगे भारी
जीवित मनुष्य से भी जीवित
तुम अपने चालक जीवन को
और भी चालाक बना लोगे

संबंधों और संबोधन कि राजनीति से